Wednesday, September 21, 2011

प्रेस कॉर्पोरेट और सरकार का आइना है, सच का नहीं ???. (इस विचार के विपक्ष में)




महात्मा गाँधी ने बहुत साल पहले ये कहा था कि पत्रकारिता का एकमात्र उद्देश्य है सेवा, लोगों की भलाई है." भले ही आज के इस आधुनिक ज़माने में हम गांधीगिरी के बहुत से उद्देश्यों को अपनी ज़िन्दगी से ओझल करते जा रहे हैं पर आज भी इस दुनिया में कुछ ऐसे लोग मौजूद हैं जो मानवता की भलाई को ही अपने जीवन का उद्देश्य मानते हैं. जिनके लिए एक गरीब और असहाय की दबती आवाज़ को कुर्सी पर बैठे नेता तक लेकर जाना ही सबसे ज़रूरी कार्य है. माना की आज उसी पंक्ति में इन उद्देश्यों से भटकते हुए समीर जैन जैसे औद्योगिक भी हैं जिनके लिए एक अखबार और एक साबुन बेचने में कोई अंतर नहीं है पर कैसे, कैसे भूल सकते हैं हम उन् मीडिया कर्मियों को जिन्होंने जेस्सिका लाल, नितीश कटारा, प्रियदर्शिनी मट्टू, रुचिका गिर्होत्रा जैसे अनेक मासूमों को इन्साफ की राह दिखाई और वो भी तब जब इस देश की न्यायपालिका तक ने अपना पल्ला झाड़ लिया था.
नमस्कार
माननीय अध्यक्ष महोदय एवं यहाँ उपस्थित सभी श्रोता. मैं दिव्या गोयल, अंग्रेजी पत्रकारिता कि छात्रा, आज इस वाद विवाद प्रतियोगिता में आप सबके सामने अपने विचार पेश करुँगी. और मैं इस विचार से बिलकुल भी सहमत नहीं हूँ कि प्रेस कॉर्पोरेट और सरकार का आइना है, सच का नहीं. प्रेस कि ओर ऊँगली उठाने से पहले हमें उन अनगिनत हादसों पर गौर फरमाना होगा जिन्हें प्रेस ने बेदाग़ शीशे कि तरह समाज के सामने रखा है.
मुजामिल जलील, इंडियन एक्सप्रेस के वो पत्रकार, जिन्होंने अभी कुछ ही दिन पहले, कश्मीर में हुई २००० से ज्यादा मासूम मौतों को खोद कर निकाला. वो २००० मृत शरीर जिन्हें पुलिस ने ये कह कर भून दिया कि वो आतंकवादी हैं ? अब कहीं जाकर सरकार ने उन मृत शरीरों कि डीएनए जांच के आदेश दिए और बरसों से बिलख रहे परिवारों को उन्हें लौटाने का फैसला किया. यह सच का आइना नहीं तो और क्या है? कैसे भूल सकते हैं हम जे . डे. जैसे पत्रकार को जिसने अपनी जान कि परवाह किये बिना अन्डरवर्ल्ड के कुछ ऐसे कंपाने वाले सच बाहर निकाले कि छोटा राजन गैंग ने दिन दहाड़े उसकी हत्या कर दी. सिर्फ भारत ही क्यों, पाकिस्तान, वो देश जो सर से लेकर पाँव तक आतंकवाद की बेड़ियों में जकड़ा हुआ है, वहाँ भी सईद सलीम शाहज़ाद जैसे पत्रकार को मार दिया गया क्योंकि उन्होंने अल- कायदा और आई .एस. आई के बीच पनप रहे रिश्तों का खुलासा किया.
मीडिया ने पिछले कुछ सालों में एक नए दौर को जनम दिया है जो है विकास शील पत्रकारिता यानि की डेवेलोपमेंट जर्नालिस्म. जिसमे हमारे समाज के कुछ ऐसे पहलु सामने आये जो अब तक नकारात्मक पत्रकारिता के नीचे दबे थे. इंडियन एक्सप्रेस के संतोष सिंह ने बिहार के दूसरे रूप से हमें अवगत कराया तथा उन्हें उनकी रिपोर्ट 'मोडर्न मुखिया' के लिए 'स्टेट्समैन अवार्ड फॉर रुरल रिपोर्टिंग' से नवाज़ा गया. वहीं हिंदुस्तान टाईम्ज़ की शालिनी सिंह ने धड़ल्ले से हो रही गैर कानूनी माइनिंग गतिविधियों का पर्दाफ़ाश कर मीडिया की गरिमा का उदाहरण दिया.
अगर अभी भी हमें ये मानना गलत लगता है की मीडिया सच का आइना है तो हमें याद करना होगा साल २००१ को जब हिन्दू समाचार पत्र के पी. साईनाथ ने यह साबित किया की किस तरह आंध्र प्रदेश में १८०० से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की और किस तरह एक किसान की बीवी कर्जा उतारने के लिए वैश्या तक बन जाती है. जबकि सरकार तो यह तक मानने को तैयार नहीं थी की किसान आत्महत्या नाम की कोई चीज़ इस देश में होती भी है.
जब कारगिल में अपनी जान न्यौछावर कर देने वाले शहीदों के कफ़न तक को राजनीति ने नहीं बख्शा और जानबूझ कर २ करोड़ के महेंगे कफ़न एक अमेरिकी कंपनी से खरीदे गए तब मीडिया ही था जिसने उस समय के रक्षा मंत्री जोर्जे फर्नांडेस को इस्तीफा देने पर मजबूर कर दिया. कौन भूल सकता है उस समय को जब २००१ में तहलका ने बी. जे. पी. के लक्ष्मण बंगारू को खुलेआम घूस लेते हुए देश के सामने दिखाया. पर उसका क्या परिणाम हुआ ये आप भी जानते हैं और मैं भी. सरकार ने तहलका के सारे दफ्तरों पर हमले कराये तथा धोखाधड़ी के झूठे केसों में फसाकर तहलका को नष्ट कर दिया. पर सच्चाई का तूफ़ान ऐसे नहीं थमता और २००३ में तहलका ने लोगों के सहारे से मज़बूत वापसी की.
और अब भी हम यही कहेंगे की मीडिया सच्चाई का आइना नहीं है?
एन. डी. टी. वी. का बड़े कॉर्पोरेट हाउस विडियोकान से जुड़ना और उन गावों में बिजली पहुँचाना जहां के लोगों ने स्वतंत्रता से लेकर आज तक अन्धकार को ही अपनी किस्मत मान लिया, एक मिसाल है इस बात की, कि अगर कॉर्पोरेट का पैसा और मीडिया कि विचारधारा एक हो जाए तो वह समाज के लिए क्या कुछ नहीं कर सकते.
अंत में मैं मार्गरेट मीड्स कि सोच से सहमति रखते हुए यही कहना चाहूंगी कि कभी मत सोचो कि कुछ चुनिन्दा मेहनती लोग देश को नहीं बदल सकते, बल्कि आज तक वो चुनिन्दा ही हैं जो दुनिया को बदलते आये हैं.
और इसी विश्वास के साथ कि वो चुनिन्दा लोग आज भी मीडिया में मौजूद हैं मैं यही मानती हूँ कि प्रेस सच का आइना है, कॉर्पोरेट या सरकार का आइना नहीं.